कल रात नींद न आई
करवट बदल बदल कर
कोशिश
की थी सोने की
आखें खुद बा खुद भर आई
तुम्हारे न आने पर
मई उअड्स होता हूँ जब
भी
ऐसा ही होता वहहै मेरे साथ
फिर जलाई भी मैंने माचिस
और
बंद डायरी से निकली थी तुम्हारी तस्वीर
कुछ ही देर में बुझ गयी थी रौशनी
और उसमे खो गयी थी
तुम्हारी हसी
जिसे देखने की चाहत लिए मई
गुजर देता था रातों को
सजाता था सपने तुम्हारे
तारों के साथ
चाँद से भी खुबसूरत
लगती thi तुम
हाँ तुम से जब कहता ये
सब
तुम मुस्कुराकर
मुझे पागल
कहकर अ क्र चिढाती थी
मुझे अच्छा लगता था
तुमसे यु मिलना
जिसके लिए तुम लिखती चित्ती
लेकिन
कभी वो पास न आई मेरे
और जिसे पढ़ा था मैंने हमेश ही
Saturday, April 3, 2010
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