Tuesday, August 11, 2009

बादलों में चांद छिपता

बादलों में चांद छिपता है,


निकलता है ,

कभी अपना चेहरा दिखाता है ,

कभी ढ़क लेता है ,

उसकी रोशनी कम होती जाती है

फिर अचानक वही रोशनी

एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।

मैं इस लुका छिपी के खेल को

देखता रहता हूँ देर तक,

जाने क्यूँ बादलों से

चांद का छिपना - छिपाना

अच्छा लग रहा है ,

खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,

मन को भा रहा है ,

उस चांद में झांकते हुए

न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।

ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास

बार - बार हो रहा है ।

तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,

मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,

आज याद कर रहा हूँ ,

इन यादों की तड़प से

मन विचलित हो रहा है ,

शायद चांद भी ये जानता है कि-

मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?

अधूरा हूँ ,

ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर

तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है

4 comments:

  1. उस चांद में झांकते हुए
    न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।
    ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास
    बार - बार हो रहा है ।
    नीशू भाई मुहब्बत को तो कोई तुमसे व्यक्त करना सीखे. पढंते ही मन पता नहीं कहां-कहां चला जाता है.

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  2. भावाभिव्यक्ति अच्छी है .....!!

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  3. Pahlee baar aapke blogpe aayee hun..kaafee kuchh padha..sahaj aur saral lahja behad achha laga!

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