बादलों में चांद छिपता है,
निकलता है ,
कभी अपना चेहरा दिखाता है ,
कभी ढ़क लेता है ,
उसकी रोशनी कम होती जाती है
फिर अचानक वही रोशनी
एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।
मैं इस लुका छिपी के खेल को
देखता रहता हूँ देर तक,
जाने क्यूँ बादलों से
चांद का छिपना - छिपाना
अच्छा लग रहा है ,
खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,
मन को भा रहा है ,
उस चांद में झांकते हुए
न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।
ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास
बार - बार हो रहा है ।
तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,
मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,
आज याद कर रहा हूँ ,
इन यादों की तड़प से
मन विचलित हो रहा है ,
शायद चांद भी ये जानता है कि-
मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?
अधूरा हूँ ,
ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर
तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है
उस चांद में झांकते हुए
ReplyDeleteन जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।
ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास
बार - बार हो रहा है ।
नीशू भाई मुहब्बत को तो कोई तुमसे व्यक्त करना सीखे. पढंते ही मन पता नहीं कहां-कहां चला जाता है.
भावाभिव्यक्ति अच्छी है .....!!
ReplyDeletePahlee baar aapke blogpe aayee hun..kaafee kuchh padha..sahaj aur saral lahja behad achha laga!
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